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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 14 
सावित्री के वन में पदार्पण करने मात्र से उस भीषण वन में बहार छा गई । जब कोई पुण्यात्मा किसी क्षेत्र में पदार्पण करती है तो उसके प्रभाव से निर्जन स्थान भी देवालय बन जाता है । वृक्षों पर फल लदने लगे । पौधे पुष्पों से आच्छादित होने लगे । कोंपलों में अधिकाधिक बढने की प्रतिस्पर्धा होने लगी । सुवासों में द्वंद्व होने लगा कि कौन कितनी तेज गति से तीखी गंध लिये दौड़ती है । सब सुवासों के सम्मिश्रण से उन्हें पहचानने में मुश्किल होने लगी । पक्षी अपनी उपस्थिति दर्शाने के लिए सावित्री की कुटिया में आकर मीठी ध्वनि में संगीत सुनाने लगे । जैसे बैट्री समाप्त होने पर उसे चार्ज किया जाता है उसी प्रकार वन के सभी जानवर अपने अंदर ताजगी भरने के लिए सावित्री के दर्शनार्थ आने लगे । चारों ओर सकारात्मक वातावरण व्याप्त हो गया । वह कुटिया इस तरह चमकने लगी जैसे शरद ऋतु की पूर्णिमा के चन्द्रमा के प्रकाश से सारा जग जगमगाने लग जाता है । वह छोटी सी कुटिया मंदिर की शोभा पाने लगी । 

सत्यवान की मां ने उस कुटिया का विस्तार करने के लिए सत्यवान को कह दिया था । नव वधू को निजता की आवश्यकता होती है । सत्यवान ने वन से लकड़ी , बांस , घास फूस एकत्रित कर कुटिया का विस्तार कर एक कक्ष का निर्माण करना प्रारंभ कर दिया । सावित्री उसमें अपना योगदान देने के लिए उपस्थित हो गई । 
"ये क्या कर रही हो प्रिये ? ये तुम्हारा कार्य नहीं है । तुम्हारे कोमल हाथों में चोट आ सकती है । तुम घर का अन्य कार्य कर लो, मैं इसे तैयार कर लूंगा" । सत्यवान का हृदय सावित्री को कुटिया बनाते देखकर पसीज उठा था । 
"ऐसा कौन सा कार्य है स्वामी जो एक स्त्री नहीं कर सकती है ? स्त्री पुरुष की ताकत भी है और कमजोरी भी । लंपट पुरुषों के लिए एक स्त्री उसकी कमजोरी है लेकिन सच्चरित्र पुरुषों के लिए एक स्त्री उसकी सबसे बड़ी ताकत होती है । मैं आपकी भार्या हूं नाथ । भार्या होने का तात्पर्य है आपका भरण पोषण करने वाली । इस प्रकार मैं आपका भोजन से ही भरण पोषण करने वाली नहीं हूं अपितु आपको धूप , बरसात, शीत , घाम से भी बचाने वाली मैं ही हूं । इस प्रकार मुझे अपना कर्तव्य पूरा करके "भार्या" होने का गौरव प्रदान कीजिये, स्वामी" । सावित्री ने विनीत भाव से कहा 
"तुमसे तर्क शास्त्र में विजय पाना असंभव है प्रिये । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि यदि साक्षात् यमराज जी भी तुमसे तर्क वितर्क करें तो तुम उन्हें भी पराजित कर दोगी" । सत्यवान ने मुस्कुराते हुए कहा । 

यमराज का नाम सुनते ही सावित्री चिंतित हो गई । नारद जी ने सत्यवान का भविष्य पहले ही बता दिया था । वह एक एक दिन का हिसाब रख रही थी । उसके पास मात्र एक वर्ष ही था । इस एक वर्ष में वह संपूर्ण जीवन जी लेना चाहती थी । मृत्यु तो एक शाश्वत सत्य है । यों भी कहा जा सकता है कि मृत्यु ही एक मात्र सत्य है । यह बात सब लोग जानते हैं फिर भी सब लोग मृत्यु से डरते हैं । क्या मृत्यु को टाला जा सकता है ? क्या मृत्यु पर विजय प्राप्त की जा सकती है ? बड़े बड़े विद्वान, प्रकाण्ड पण्डित, शास्त्रों के ज्ञाता कहते हैं कि मृत्यु को एक पल भी इधर उधर नहीं किया जा सकता है । वह अपने निर्धारित समय पर ही आयेगी और अपना कार्य कर जीव को अपने पाश में बांधकर ले जायेगी । अगर देखा जाये तो एक यमराज जी ही तो हैं जो अपना कार्य बिना मोह माया के करते हैं और अपने कार्य में न कभी कोताही बरतते हैं और न कभी लापरवाही करते हैं । सच में , निष्काम कर्म करने का इससे बेहतर उदाहरण अन्य कोई नहीं हो सकता है । वे राग द्वेष, अपना पराया , हानि लाभ से परे रहकर अपना कार्य अनवरत रूप से करते रहते हैं । वे न रात देखते हैं और न दिन । ऐसे महान व्यक्तित्व से वह अपने पति की रक्षा कैसे कर पायेगी ? सावित्री सोच में पड़ गई । 

बहुत बड़ी चुनौती थी सावित्री के सामने । स्त्री को अबला माना जाता है और कहा जाता है कि वो "बेचारी" क्या कर सकती है ? सावित्री मन ही मन कहने लगी "लोग स्त्री को बहुत तुच्छ समझते हैं । ऐसे लोगों की बुद्धि पर तरस आता है उसे । आत्म मुग्ध पुरुष ही ऐसा सोच सकता है । एक स्त्री वह चाहे माता हो या भार्या, जब अपनी पर आती है तो वह साक्षात यम से भी लड़ जाती है । पहले भी ऐसा स्त्रियों ने किया है और लगता है कि उसे भी यमराज जी से भिड़ना ही पड़ेगा । यमराज जी ऐसे ही मानने वाले हैं क्या ? सुना है कि उनका हृदय इन्द्र के वज्र से भी कठोर है । उन्हें पिघलाना असंभव है । 

"असंभव" शब्द सावित्री के शब्द कोष में नहीं है ऐसा वह सोचती थी । कोई कार्य मुश्किल अवश्य हो सकता है लेकिन उसे करना असंभव हो, यह संभव नहीं है । सावित्री के चेहरे पर दृढ़ता आने लगी । वह असंभव को भी संभव करके दिखायेगी और लोगों को बताइगी कि एक स्त्री , विशेषकर एक पतिव्रता स्त्री अपने पति की रक्षा के लिए क्या नहीं कर सकती है ? आवश्यकता पड़ने पर वह यमराज से भी लड़ सकती है । अब वह अपने पति की ढाल बनेगी । कोई संकट जब तलवार बनकर आयेगा तो उसे पहले सावित्री रूपी ढाल को काटना पड़ेगा तब वह सत्यवान को नुकसान पहुंचा सकेगा । इसके लिए उसे सदैव अपने पति के साथ रहना होगा । इसीलिए तो वह पति का साथ पाने के लिए हर वो कार्य करती हे जो उसका पति करता है । 

सत्यवान वन में लकड़ी काटने रोज जाता था । गृहस्थ जीवन में पड़ने से सत्यवान के उत्तरदायित्व भी बढ़ गये थे  इसलिए वह लकड़ियों का एक गठ्ठर बेचकर जो कुछ धन प्राप्त होता था, उससे अपनी गृहस्थी चला रहा था । सावित्री के आने से उस पर और अधिक जिम्मेदारी आ गई थी । इस बढ़ी हुई अतिरिक्त जिम्मेदारी को उठाने के लिए उसने लकड़ियों के अतिरिक्त गठ्ठर काटने प्रारंभ कर दिये । इससे उसे थकान होने लगी थी जो उसके चेहरे से प्रतिबिंबित होने लगी थी । 

सावित्री तो दर्शन शास्त्र और मनोविज्ञान की छात्रा थी । उसकी दृष्टि से यह बात कैसे छुप सकती थी । उसे भान हो गया कि सत्यवान अब अधिक परिश्रम करने लगे हैं । अपने पति को पीड़ा में कौन पत्नी देखना चाहती है ? अगले ही दिन वह जल्दी जगी और अपना घर गृहस्थी का काम कर साड़ी कमर में कस कर हाथ में कुल्हाड़ी लेकर द्वार पर खड़ी हो गई । जैसे ही सत्यवान घर से बाहर निकला , वह भी उसके पीछे पीछे चल दी । जब सत्यवान को पता चला तो उसने कहा "कहां जा रही हो प्रिये" ? 
"एक पतिव्रता पत्नी अपने पति की अनुगामिनी होती है आर्य । वह अन्यत्र कहां जा सकती है" ? 
"वन में लकड़ियां काटना अत्यंत दुष्कर कार्य होता है प्रिये । आपके कोमल हाथ कठोर कुल्हाड़ी को कैसे संभालेंगे ? हाथों में छाले पड़ सकते हैं देवी । इसके अतिरिक्त जंगल में हिंसक जानवर भी रहते हैं । पता नहीं कौन जानवर कब आक्रमण कर दे ? अत: मैं आपको वन गमन की अनुमति नहीं दे सकता हूं" सत्यवान चिंतित होकर बोला 
"यदि हिंसक जानवर मुझ पर आक्रमण कर देंगे तो वे हिंसक पशु आप पर भी तो आक्रमण कर सकते हैं ना ? तब आप क्या करेंगे ? मैं इतनी स्वार्थी नहीं हूं जो आपको खतरे में देखकर भी मैं घर पर आराम करूं ? इसलिए मुझे आपके साथ चलने की अनुमति प्रदान करें नाथ" । 
"वन में मार्ग कण्टकाकीर्ण होता है । आपके पांवों में कांटे लग सकते हैं जिससे आपके पैर लहूलुहान हो सकते हैं । वृक्षों की तीखी टहनियों से आपके बदन में आघात लग सकता है । सर्प , बिच्छू वगैरह काट सकते हैं । वन संकटों का प्रासाद है देवी । इसलिए मेरी बात मानो और घर लौट जाओ" । सत्यवान उससे चिरौरी करते हुए बोला । 
"स्वामी , आपके दर्शन लाभ करते करते मेरे लोचन तृप्त ही नहीं होते हैं । आप दिन भर तो वन में ही रहते हैं । थोड़ा सा समय रात्रि में ही तो प्राप्त होता है । उसमें दर्शन लाभ से न तो नेत्रों को तृप्ति होती है और न ही दग्ध हृदय को शान्ति मिलती है । मैं आपके साथ रहूंगी तो मेरे नयन आपको जी भरकर देखेंगे । इससे मेरे जलते हुए मन को भी शांति मिलेगी । मैं अपने हाथों से आपको भोजन करा दूंगी और शीतल जल पिलाकर आपकी प्यास भी मिटा दूंगी । अपने आंचल से आपकी धूप से रक्षा भी कर दूंगी । आपके पग में गढ़े हुए कांटे भी निकाल दूंगी । अब तो मुझे साथ ले चलिए न प्रभो" । सावित्री सत्यवान के चरण पकड़कर बोली । 

"त्रियाहठ" से पार पाना पुरुषों के वश में कहां है ? सत्यवान तो बेचारा पहले दिन से ही सावित्री के कंटीले नेत्र पाशों में बंधकर सावित्री के अधीन हो चुका था । रही सही कसर सावित्री के निश्छल प्रेम, सादगी, सरलता , धैर्य, त्याग, शील, सेवा, व्यहवार, मधुर वाणी ने पूरी कर दी । वह पूरी तरह से सावित्री के अधीन हो चुका था । पुरुषों की स्थिति बड़ी विचित्र होती है । समाज में वह अपनी भार्या का स्वामी माना जाता है पर सत्य तो यह है कि वह अपनी पत्नी के प्रेम का दास होता है । वह उसकी भौंहों के इशारों पर नृत्य करता है । उसकी मुस्कान पर "दण्डवत" हो जाता है । और जब वह प्रेम से अपनी बांहों का हार उसके गले में डाल देती है तो वह झट से "धराशायी" हो जाता है । एक पत्नी न केवल अपने पति के हृदय पर शासन करती है अपितु वह उसकी बुद्धि पर भी शासन करती है । सत्यवान में इतना सामर्थ्य कहां बचा था जो सावित्री की बातों का प्रतिरोध करता ? अत: वह हथियार डालते हुए बोला "जैसी आपकी इच्छा देवी" । 

सावित्री के अधरों पर एक विजयी मुस्कान खेलने लगी । उसके पिता उसके बारे में सही कहते थे "सावित्री, तुमसे तो भगवान भी नहीं जीत सकते हैं"। वह बात याद करके सावित्री का मन भर आया । बरबस, अपने माता पिता की याद आ गई । कितने दिन हो गये उनसे मिले हुए ? पर अब तो अपने सास श्वसुर ही अपने माता पिता हैं । ऐसा सोचकर उसने अपने मन को सांत्वना प्रदान की और चुपके से आंखों में आये आंसुओं को पोंछ डाला । 

जंगल में एक सूखे वृक्ष को दोनों मिलकर काटने लगे । आधा वृक्ष कटने पर दोनों जने बरगद के एक घने वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम करने लगे । सावित्री ने अपनी गोदी में सत्यवान का सिर रख लिया और उसके स्वेद बिंदुओं को अपने आंचल से पोंछने लगी । आनंद की अधिकता के कारण सत्यवान की पलकें मुंदने लगी । वह स्वर्ग लोक की सैर करने लगा । उसने देखा कि वे दोनों नंदन वन में रमण कर रहे हैं । वह सावित्री के पीछे पीछे दौड़ रहा है । सावित्री आगे आगे दौड़ रही है । सत्यवान अपनी गति बढ़ाता है मगर इसके बावजूद वह दोनों के मध्य फासले को कम नहीं कर पाता है । इतने में एक काला सा मोटा सा विशालकाय व्यक्ति उन दोनों के मध्य दीवार बन कर उपस्थित हो जाता है और तलवार के एक ही वार से उसका काम तमाम कर देता है । उसका धड़ वहीं गिर जाता है । उसका हाथ सावित्री को पकड़ने के लिये ऊपर उठा था । वह ऐसा का ऐसा ही रह जाता है । घबरा कर उसकी आंखें खुल जाती है और सीधे सावित्री की काली मतवाली आंखों से टकरा जाती है । सावित्री के मदमस्त नैन अमृत बरसाने लगते हैं । सत्यवान सावित्री से इस तरह लिपट जाता है जैसे कि सावित्री कहीं जाने वाली हो और वह उसे जाने नहीं देना चाहता हो । सावित्री का कोमल हाथ उसके वक्षस्थल पर फिरने लगता है इससे उसे असीमित आनंद की अनुभूति होती है । 

सत्यवान उठकर बैठ गया । सावित्री उसे अपने हाथ से भोजन कराने लगी । सत्यवान ने भी एक कौर तोड़ा और उसे सावित्री को खिलाने लगा । सावित्री ने अपना मुंह खोल दिया और सत्यवान ने वह कौर उसमें रख दिया तब सावित्री ने उसकी उंगली काट ली । 
"उई मां" एक जोरदार चीख जंगल में गूंज उठी । 
"क्या हुआ ? ज्यादा तेज काट लिया क्या" ? सावित्री एकदम से घबरा गई थी । 
"तेज नहीं, बहुत तेज काटा है आपने" । सत्यवान शिकायत के लहजे में बोला 
"क्षमा तात ! मुझे क्षमा करिए । मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था" ? खिसियाते हुए सावित्री बोली 
"क्षमा करने से काम नहीं चलेगा प्रिये, दण्ड चुकाना होगा" 
"मैं दण्ड भुगतने के लिए तैयार हूं, नाथ । बताइए, मुझे क्या करना है" ? सावित्री ने समर्पण करते हुए कहा । 

अचानक सत्यवान उसकी गोदी से उठा और उसने सावित्री के शहद से भरे हुए अधरों का एक भरपूर चुंबन लिया और कहा "अब ठीक है । यही दण्ड था जो तुमने अब भुगतान कर दिया है" सत्यवान के चेहरे पर शरारत विद्यमान थी । 
"धत्त बदमाश ! कोई देख लेता तो" ? शरमा कर सावित्री बोली 
"हूं । बात तो सही कहती हैं, आप । पर अब कुछ नहीं हो सकता है । अब तो "उसने" देख लिया है" । सत्यवान ने एक वृक्ष की ओर इशारा करते हुए कहा । 
"कौन है वहां" ? घबरा कर सावित्री बोली 
"ह्म्म्म्म । एक कोयल है वहां पर । उसने सब देख लिया है" शरारत से सत्यवान ने कहा 
"हे मेरे प्रभु ! अब क्या होगा" ? चिंतित स्वर में सावित्री ने कहा 
"कुछ खास नहीं । बस, यही दण्ड प्रतिदिन देना होगा" हंसते हुए सत्यवान बोला 
"शैतान कहीं के ! मैं आपको छोडूंगी नहीं । देखना कि अब मैं क्या करती हूं" तनिक क्रोध में सावित्री बोली 
"क्या करोगी ? चुंबन से अधिक दण्ड तो आलिंगन है । क्या वही दण्ड दोगी" ? शरारत से सत्यवान ने कहा 
"आप बहुत खराब हैं । बहुत सताते हैं" कहते हुए सावित्री ने अपना मुंह सत्यवान की चौड़ी छाती में छुपा लिया । 

क्रमश: 
5.5.2023 

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4 Comments

वानी

08-May-2023 02:49 PM

🙏🙏🙏🙏

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Hari Shanker Goyal "Hari"

08-May-2023 11:54 PM

🙏🙏

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Varsha_Upadhyay

06-May-2023 10:20 PM

शानदार भाग

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Hari Shanker Goyal "Hari"

08-May-2023 06:03 AM

🙏🙏🙏

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